ज्ञान का विज्ञान
दिनांक – 12 फरवरी 2011
मनुष्य का ज्ञान सामाजिक व्यवहार से या बाहरी दुनिया में, उत्पादक–कार्य या भौतिक संम्पर्क के माध्यम से पैदा होता है। अपने आरम्भिक काल में हमें इन्द्रियबोधी ज्ञान होता है, जो कि हमारे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया गया या वाह्य प्रभावों पर आधारित होता है। लेकिन यह प्रत्येक मनुष्य में धीरे–धीरे चिन्तन-मनन एवं विचार–विमर्श के माध्यम से और तर्कसंगत ज्ञान के धरातल पर पूर्णतः विकसित होकर अनेकों सिद्धान्तों को जन्म देती है, और यह ज्ञान धीरे-धीरे तर्कसंगत ज्ञान की अवस्था में आ जाने पर वाह्य समाज व दुनिया के सुधार के लिए मनुष्य द्वारा व्यवहार में लाया जाता है, और लगातार इस प्रकार का प्रयास करते रहने से ज्ञान पहले से और अधिक सशक्त, समृध और प्रखर होकर सामने आता है। ज्ञान में समाज और प्रकृति दोनों शामिल हैं। इस तरह मानवीय अभिकर्ता इसे बदलने का प्रयास करता है या खुद इसके द्वारा बलद जाता है। इसमें कोई अलग-अलग आदमी ही नहीं वल्कि सम्पूर्ण जनसमुह या समाज होता है। मनुष्य के ज्ञान में केवल उतनी ही बातें सामिल होती हैं, जो उसने अपने समाज व व्यवहार के माध्यम से प्राप्त किया है। इसके अतिरिक्त वह ज्ञान जो बोल-चाल और पढ़ने-लिखने से या अपने को विस्तारीत करके प्राप्त किया है। इस तरह यह एक अन्तःचक्रिय क्रिया है। ज्ञान अर्जित करने की कोई समय सीमा न होते हुए भी मनुष्य के इच्छा शक्ति से जुड़कर सीमावद्ध हो जाता है।
सच्चाई को आप अपने व्यवहारों से ढूंढ सकते हैं, और उसे व्यवहार करके परख सकते हैं। हमारी इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को सक्रिय करने पर तर्कसंगत ज्ञान का विकास होता है, फिर उसे हम अपने वाह्य समाज में स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसी तरह यह प्रक्रिया दुहराते हुए ज्ञान की अन्तर्तस्तु को एक उच्चतर स्तर पर ले जा सकते हैं, और यह ज्ञान की एक द्वंद्वात्मक स्थिति है, क्योंकि ज्ञान का स्तर, अनेकों दिशाएं, अनेकों रुप में हो सकती है।
1- अमृत या ज्ञान को देने से पहले उसकी पात्रता देखी जाती है।
2-अच्छी और सुन्दर अभिव्यक्ति ही मनुष्य के जीवन की सुन्दरता है।
3-सुन्दर वाणी ही मनुष्य के व्यक्तित्व की सुन्दरता है।
4-अच्छाई या बुराई की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है।
5- एक माँ अपने सात बच्चों का पेट भर लेती है, लेकिन सात बच्चे मिलकर भी एक माँ का पेट
नहीं भर पाते हैं।
6- अमृत को यदि सूराख दार पात्र में उड़ेल दिया जाए तो भी बह जएगा।
बहुत सुन्दर ज्ञान वर्धक लेख| धन्यवाद|
ReplyDeleteशुक्रिया।
ReplyDeletebahut sundar post
ReplyDeleteamrit vachan
aabhaar
बहुत अच्छा ज्ञानवर्धक आलेख....
ReplyDeleteइस बात में कोई भी दो राय नहीं है कि लिखना बहुत ही अच्छी आदत है, इसलिये ब्लॉग पर लिखना सराहनीय कार्य है| इससे हम अपने विचारों को हर एक की पहुँच के लिये प्रस्तुत कर देते हैं| विचारों का सही महत्व तब ही है, जबकि वे किसी भी रूप में समाज के सभी वर्गों के लोगों के बीच पहुँच सकें| इस कार्य में योगदान करने के लिये मेरी ओर से आभार और साधुवाद स्वीकार करें|
ReplyDeleteअनेक दिनों की व्यस्ततम जीवनचर्या के चलते आपके ब्लॉग नहीं देख सका| आज फुर्सत मिली है, तब जबकि 14 फरवरी, 2011 की तारीख बदलने वाली है| आज के दिन विशेषकर युवा लोग ‘‘वैलेण्टाइन-डे’’ मनाकर ‘प्यार’ जैसी पवित्र अनुभूति को प्रकट करने का साहस जुटाते हैं और अपने प्रेमी/प्रेमिका को प्यार भरा उपहार देते हैं| आप सबके लिये दो लाइनें मेरी ओर से, पढिये और आनन्द लीजिये -
वैलेण्टाइन-डे पर होश खो बैठा मैं तुझको देखकर!
बता क्या दूँ तौफा तुझे, अच्छा नहीं लगता कुछ तुझे देखकर!!
शुभाकॉंक्षी|
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
सम्पादक (जयपुर से प्रकाशित हिन्दी पाक्षिक समाचार-पत्र ‘प्रेसपालिका’) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
(देश के सत्रह राज्यों में सेवारत और 1994 से दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन, जिसमें 4650 से अधिक आजीवन कार्यकर्ता सेवारत हैं)
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