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Friday, July 1, 2011

प्रधान मंत्री की चुप्पी ।


प्रधान मंत्री की चुप्पी
दिनांक – 1/7/2011
जैसा कि दिनांक 29 जून 2011 को प्रधान मंत्री जी अपनी चुप्पी तोड़ते हुए संपादको से बात-चीत किया और आगे भी करते रहने की बात को दोहराया किसी भी लोकतंत्र की पहली जरुरत जनता से संवाद के परिपेक्ष मे सरकार की नीतियों और पतिक्रिया जनता तक समय समय पर पहुंचते रहने से सरकार और जनता के बीच संवाद हीनता की स्थिती पैदा नही होती है साथ ही साथ सरकार की पारदर्शीता बनी रहने से जनता और सरकार के बीच का रिस्ता मजबूत करने मे सहायक होता है। पिछले कुछ एक महीनो से देश में हो रहे हलचलों और सरकार पर लगने वाले तरह-तरह के ईलजामो के वाबजूद सरकार या मुखिया की ओर से कोई प्रतिक्रीया उत्तर न देने या वस्तु स्थिती को स्पष्ट करने की कोई कोशिस करने की जरुरतल भी महशूस नही की गई जिसके चलते संसय पूर्ण स्थिती और भी उलझती चली गई। इस परिदृश्य में प्रश्न यह उठता है कि आखिर कार इसकी क्या वजह रही होगी जो सरकार को इतने दिनो तक चुप्पी साधे रहने के लिए मजबूर होना पड़ा ? इस परिपेक्ष मे यह कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए नही किया गया क्योंकी की संसद पटल पर बील के रखते ही उसमे तरह-तरह के बहस और प्रतिक्रिया  होना स्वाभाविक है जिससे सरकार को सामना करना पड़ता और दूसरी पार्टीयों के लोंगो को समझाने या मनाने का काम सरकार के लोगों को करना पड़ता ऐसे मे दूसरी पार्टी के लोग बील को पास करने के लिए सरकार के सामने अपनी शर्ते रखते, लेकिन चुप रहके यह काम अन्ना हजारे और उनके दल के लोगों के जरिये पहले कर लेने से सरकार का बोझ हलका होने के साथ ही साथ बील के पास होने की गुंजाईश भी बढ़ जाएगी और सरकार इस सफलता का सेहरा अपने सर जरुर बंधवाना चाहेगी यहां दूसरा प्रश्न उठता है कि अगर स्वयं प्रधान मंत्री के पद को लोकपाल के दायरे मे आने से कोई गुरेज नही है जहां तक न्यायपालिका के जजों की बात है यह तो समझ मे आता है लेकिन प्रधान मंत्री के पद के लिए दूसरों को आपत्ती क्यों और इसका कारण क्या हैं? इसे स्पष्ट करने के साथ ही साथ दूसरे अन्य मुद्दों पर भी असहमति के कारणों को भी स्पष्ट करना जरुरी है। जहां तक सशक्त लोकपाल का सवाल है क्या प्रधान मंत्री पद और जजों के पद इसके दायरे मे आने मात्र से ही लोकपाल सशक्त बन जाएगा ऐसा नही है जब तक यह सुनिश्चि नही होगा कि इस लोकपाल के अन्तर्गत आने वाले मामलों को कौन, कब, कैसे देखेगा और इसकी जिम्मेदारी किस पर होगी। इस मामले को लेकर दोनो पक्षों मे अभी भी विरोध बना हुआ है उधर केंन्द्र सरकार इसकी निगरानी खुद अपने पास रखने की बात कह रही है तो दूसरी तरफ सिवील सोसाईटी के प्रतिनीधी अपने पास रखने की बात कह रहे हैं अब सवाल इस बात का है कि अगर यह जिम्मा सरकार के पास रहता है तो क्या सरकार या सरकार के लोंगो की इसमे कोई दखल अंदाजी नही होगी इस बात की क्या गारंटी होगी ? या भविष्य में इसके सिवील सोसाईटी प्रतिनीधी भी भ्रष्टाचार के आगोश मे नही आ जाएंगे यह कौन कह सकता है और अगर ऐसा हुआ तो उन पर किस प्रकार की कार्यवाही सुनिश्चित किया जाएगा ऐसे कुछ एक ज्वलंत मुद्दों को सुलझा कर और सभी पहलूओं पर सोच समझ कर फैसला करने की जरुरत है। अभी शुरुआत मे देश के जनता के बीच से कुछ लोग खड़े हो कर अनशन आंदोलन चला कर और बाद मे जन समर्थन हासिल कर सिवील सोसाईटी के प्रतिनीधी बना लिए गए, लेकिन आने वाले दिनो मे क्या एक और सिवील सोसाईटी प्रतिनीधी के चुनाव का खर्च भी देश को वहन करना पड़ेगा ? ऐसे कुछ एक मुद्दों पर दोनो पक्षों को बिना किसी लाग लपेट के सोचना पड़ेगा और अभी वर्तमान मे अगर इस बात पर नही सोचा गया तो आगे आने वाले भविष्य मे इस लोकपाल विधेयक और इसके कानून पर इसी जनता की अंगूलीयां उठने मे देर नही लगेगी।