Popular Posts

Sunday, January 30, 2011

गांधी की प्रासंगिकता

गांधी की प्रासंगिकता
दिनांक – 30 जनवरी 2011
आदरणीय शशि शेखर जी नमस्कार,
भले ही आज हम गांधी जी को भूल गए हैं लेकिन आज दिनांक – 30 जनवरी 2011 को रविवासरीय हिन्दुस्तान के मंथन पृष्ठ संख्या-18 पर “गांधी की प्रासंगिकता पर इतनी बहस क्यों” नाम से प्रकाशित आपका लेख पढ़ कर हमें गांधी जी की याद दिलाता है। इस लेख के संम्बध में आपसे यह कहना है कि लेख की शुरुआत आपने इस पंक्ति से किया है कि “ चालीस साल पहले। बापू को गए हुए तब दो दशक भी नहीं हुए थे। हमारी पीढ़ी के लोग.................। ” आपका लेख पढ़ कर हमें यह मालूम पड़ता है, कि गांधी जी मृत्यु के साठ बर्ष होने को हैं। उसी समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर “ बापू का अंतिम दिन ” के शिर्षक जीवन झांकी की के कुछ चित्रों के उपर तीन पंक्तियों में से शुरुआत की पंक्ति में “ गांधी को गुजरे आज 63 बरस हो गए। ” लिखा है। जो कि स्पष्ट है। इतने बड़े समाचार पत्र में छपा संम्पादीक पृष्ठ मंथन पृष्ठ की विश्वनियता पर कुठारा घात के समान है यह दोनों वक्तव्यों में सही किसको माना जाए। इस प्रकार की संसय पूर्ण जानकारीयों से हमारी आने वाली पीढ़ीयाँ गांधी जी की मृत्यु दिवस और जन्म दिवस के वारे में दिग्भ्रमित अवश्य हो जायेगी।

-->
भ्रष्ट गण से गणतंत्र तक
दिनांक – 28 जनवरी 2011
विदेशी के स्विस  बैंक में  देश के कुछ भ्रष्ट लोगों का काला धन जमा हैं। यह बात आज से नहीं बल्कि बिसियों सालों से सुनने में चला आ रहा है। जरा आप सोचिए इस दरमियान न जाने कितनी सरकारें आयी और चली गई। जहाँ तक याद पड़ता है, यह मुद्दा वी0 पी0 सिंह सरकार के सत्ता में रहते हुए उठी थी। लेकिन उसे घुमा फिरा कर यह प्रकरण दबा दिया गया। यदि हमारे देश के नेता, मंत्री और नौकरशह इनमें से कोई एक भी  तंत्र सही होता तो बहुत पहले ही दोषियो को सजा मिल जाती और देश का सारा का सारा धन बापस आ जाता और यह मुद्दा कभी का खत्म हो चुका होता। यहाँ एक बात जरुर है कि स्विटजरलैंड का कानून भी समय-समय पर इसके आड़े आता रहा लेकिन कई साल गुजर जाने के बाद ही सन 2009 में स्विट्जरलैंड और भारत के बीच दोहरे काराधान के एक संधि पर हस्ताक्षर जरुर हुए हैं, लेकिन यह संधि स्विस बैंक में जमा कालेधन को वापस देश में लाने की गारंटी नहीं देता है। यह तो एक नाममात्र का प्रयास भर है। आज दिनांक -24 जनवरी 2011 को गूगल समाचार में प्रकाशित यह खबर पढ़ा कि स्विस बैंक में खाता रखने वाले कुछ एक लोगों के नाम पता चल गये हैं, लेकिन कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए भारत सरकार की ओर से श्री प्रणब मुखर्जी                    ने उन लोगों के नाम सार्वजनिक करने से मना कर दिया। ग्लोबल फिनेंशियल इंटीग्रिटी संस्था के अनुसार केवल सन् 2000 से 2008 तक चार करोड़ आठ लाख रुपये (4.8 लाख करोड़ ) देश से बाहर भेजे गये। इससे पहले न जाने और भी कितना कुछ गया होगा उसकी सटीक जानकारी नहीं है। लेकिन सरकार का कहना है कि डबल टैक्सेशन समझौता या एक्सचेंज ऑफ टैक्सेशन इन्फोर्मेशन एग्रीमेंट के रास्ते या इनकम टैक्स विभाग यदि टैक्स चोरों के खिलाफ केस दर्ज करें तो इस मुद्दे को आगे बड़ाया जा सकता है। क्योकि आयकर अधिकारियों के पास कानूनी ताकत है, जिसके तहत वे कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं। इस संम्बंध में देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी केंन्द्र सरकार को झिड़की लगाई और कहा काले धन को केन्द्र टैक्स मे क्यों उलझा रही है। खैर भविष्य में जो भी हो काले धन को देश में वापस लाने के लिए, दृढ़ इच्छा शक्ति से आज तक किसी भी सरकार द्वारा उपयुक्त कार्यवाही या सार्थक प्रायास किया ही नही गया। काले धन रखने वालों के नामो की जानकारी करने से लेकर न जाने और क्या-क्या पापड़ बेलते देखे गए इसके लिए देश के मंत्री से लेकर उच्च पदस्थ अधिकरीयों के स्विट्जरलैंड दौरों पर देश के जनता के गाड़ी कमाई का सफेद धन, अनेकों बार काले धन को देश में वापस लाने पर खर्च किया गया, और यह सफेद धन भी काले धन में तबदील हो गया। काला तो काला कले रंग में चाहे कोई भी रंग मिला दीजिए बह रंग काला हो जायेगा। खैर यह जरुर है कि यदि कोइ भी सरकार दृढ निंश्चय कर ले कि स्विसबैंक में पड़ा काला धन देश में वापस लाना है तो इस काम को सही दिशा देने के लिए अन्य तरीकों पर भी गौर करना चाहिए था। लेकिन किसे पड़ी है कि इतना जिद्दो-जहद करें उससे उन्हे क्या मिलेगा। ऊपर से ऐसे लोगों से पगां, शत्रुता मोल क्यों लिया जाये। यह  मुद्दा हमारे देश मे अभी तक जिंदा है, यह अपने आपमें एक बहुत बड़ी बात है, नहीं तो इतने साल गुजर जाने के बाद लोगों द्वारा इसको भुला दिया जाता। हमारे हिन्दुस्तान के नेता, मंत्री और नौकरशाह जो लोग शायद कभी नहीं सुधर पाएंगे जब तक कि वे खुद नहीं सुधरना चाहेंगे, या जब तक कि उनका कोई बहुत बड़ा अनिष्ट या घटना न घटित हो जाए। भारतीय सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। सहिष्णुता का यह मतलब कतई नहीं होता है कि आपका घर लुट रहा हो और आप तमाशाई बने  देखते रहें, उसे तनिक भर भी रोकने का साहस न जुटा पायें या रोकने की जरुरत महसूस न करें। वह भी जब कोइ विदेशी नही वल्कि अपने ही देश का हो यह तो सरासर दब्बू और कायरता की पहचान है। ऐसे में हमारे देश के लोगों द्वारा चुने जाने वाला सरकार या नेताओं से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं ? अक्सर यह देखा गया है कि दब्बू या कायर लोग जब कोई भी काम करते हैं तो उसे छुपाते हैं किसी को पता न लग जाये इस बात का भरसक प्रयास करते रहते हैं, उन्हे इस बात का हमेशा डर लगा रहता है क्योंकि दुसरों के द्वारा या सामाजिक विरोध-प्रतिक्रिया और उठने वाली बातों को वे सहन नहीं कर पाते हैं। या उसका सामना करना नही चाहते हैं। जिससे उनका सामाजिक दुर्दशा एवं स्तर पर फर्क पड़ता है, घर-परिवार की या निजी बातें तो एक अलग मुद्दा है, यही आदतें उन्हे चोरी करने को प्रेरित करती रहती है, और हमेशा डरे-सहमे से रहते हैं। हमारे समाज में ऐसे लोग की एक बड़ी संख्या हैं, जिनके पास यह आंकलन करने की क्षमता नहीं होती है, कि कौन सी बात कब कहाँ और किससे कहना है या नहीं। अभी-अभी हमने सुभाष जयन्ती और छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया। प्रत्येक छब्बीस जनवरी और पंन्द्रह अगस्त के दिन हमरे देशवासीयों का मष्तक अपने आप गर्व से उच्चाँ हो जाता है, आजादी की शुरुआती दौर से कुछ वर्षों तक सम्पूर्ण राष्ट्र का जन समुदाय जोश एवं एक नयी उर्जा से ओतप्रोत दिखाई पड़ता था। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि हमारे देशवासी  तीन सौ बर्षो तक अंग्रेजों के गुलामियत के जंजीरों से जकड़े रहे हैं अतः हमें एकाएक मिली इस आजादी की इतनी बड़ी खुशी को पा कर हमारा दिमाग एकदम स्वतंन्त्र होकर अपनी सुध–बुध ही खो बैठें और इसका फायदा कोइ अन्य रुप से उठा लें इसलिए हमारी स्वतंत्रा को अछुण रखने के लिए देशवासियों को धीरे-धीरे आजादी का अहसास होने दिया जाये। परन्तु हुआ वही जो शायद नहीं होना चाहिए था। देशवासियों को अचानक आजादी की खबर सुना दी गई और देश की जनता उन्मादी खुशीयों मे तल्लिन हो गई, घर-घर घी के दीपक जलाये जाने लगे। मुट्ठी भर लोगों ने देश के साशन अपने हाथ में लेकर सत्ता पर काबिज होने की तैयारी कर ली। उस समय साशन अपने हाथ में लेने वाले लोगों में से जो उन्ही का विरोध करते उन्हे देश के संविधान लिखने में खुछ एक को अन्य प्रशासनिक कामों में लगा कर जनता से उन्हे दूर रक्खा गया। उस वक्त देशवासी इतनी बड़ी खुशी के आगे किसी भी अन्य नेता या लोगों की बात को तबज्जो नही दे पाये इसी बजह से किसी का ध्यान कौन क्या कर रहा है, इस ओर गया ही नहीं इस तरह बचे खुचे उनके विरोधी भी अलग-थलग पड़ गये। और सही समय देख कर वही लोग सत्ता पर काबिज हो गये। जो बिज हमारे जन-मानष द्वारा आज बोया जायेगा बह कल उन्हे या उनके पूर्वजों को कटना ही पड़ेगा और बही फसल हम वर्तमान में काट रहे हैँ। सत्य बहुत कड़ुवा होता है और कड़वी चीज किसी को भी पसंन्द नहीं है। दवाई कड़वी जरुर होती है, लेकिन दवाई ही फायदा पहुँचाती है।       

Tuesday, January 11, 2011

आरक्षण से क्षमा


आरक्षण  से  क्षमा
दिनांक – 11/01/2011
     *       भारत और  पाकिस्तान  के मध्य बंटवारे पर जब-जब सेमिनार हुए तब-तब यह देखा गया कि उस पर पानी फेरने के लिए मुस्लिम प्रवक्ताओं को बार- बार यह कहते हुए सुना गया है कि यह सब कुछ तो प्रतिष्ठित  मुसलमानों की कारस्तानी थी, साधारण मुस्लिम जनता का इससे कोई लेना देना नहीं था  इसे मानना पड़ता है और हम मान भी लेते हैं  चलिए  उसे छोड़ देते हैं, लेकिन यदि सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की  मांग करने वालों की हैसियत को देखा जाए, तो फिर वही मंज़र याद आ जाता है कि सब के सब कुलीन वर्ग के ही लोग हैं। कम से कम  ये वे लोग तो नहीं हैं जिन्हें लाभ मिलना चाहिए। ऐसी दशा में फिर से कोई ऐसी गलती फिर से दुहरायी न जाये कि उनकी रपटों को लागू करके एक और बंटवारे का मार्ग को खोल दिया जाय। देश व राष्ट्रीय एकता को अक्षुण   रखने की गरज से उन्हें कूड़ेदान में फेंक दिया जाना चाहिए  एक बात ध्यान देने योग्य है कि इससे केवल  प्रतिष्ठित मुसलमानों की राजनीतिक कुचेष्टाओं को ही क्षति पंहुचेगी और कथित लाभार्थी व साधारण मुस्लिम जनता को इससे कोई भी फर्क नही पड़ेगा 
   इसका पहला कारण तो यह कि मुस्लिम  कुलीन वर्ग उन लाभों को साधारण मुस्लिम जनता  तक पहुँचने ही नही देंगे। जैसा कि हिन्दू दलितों के आरक्षण के साथ हुआ। इसलिए कि आरक्षण की मांग उनकी है ही नहीं। और न ही इसके लिए उन्होंने  कोई संघर्ष कियाया करने की ज़रुरत भी नहीं थी, क्योंकि वे गरीब भले रहे हों पर दमन के शिकार नहीं थे उन्हें अपनी धार्मिक व्यवस्था से कोई शिकायत  नहीं  है, और उससे उन्हें कोई परेशानी नहीं है फिर वे दलित कैसे कहे जाएँ और क्यों। यहीं पर यह  ध्यान देने की जरूरत है कि हिन्दू दलितों को आरक्षण उनके आर्थिक उत्थान के लिए नहीं, बल्कि उनके सामाजिक  सम्मान और उत्थान के  लिए है , दरअसल इसी सम्मान व उत्थान के लिए ही लडाई  है। ऐसा वे स्वयं समझते और कहते हैं। यदि ऐसा नहीं है तो आर्थिक दशा अच्छी हो जाने के बाद भी बड़े बड़े दलित अधिकारी वर्ग आरक्षण मुद्दा छोड़ चुके होते।
   सामाजिक प्रतिष्टा  को हासिल करने  के लिए क्या क्या  करना पड़ा, इसकी शुरूआत यदि अंबेडकर युग  से करें तो उन्होंने इसके लिए क्या-क्या  पापड़ नहीं बेले, क्या क्या नहीं किया। हिन्दू धर्म  की व्याख्या  करते हुए उसकी  बखिया तक उधेड़ डालीं, उसका तार तार, रेशा रेशा छिन्न भिन्न करके तहस-नहस कर दिया कथित पवित्र  किताबों वेद-पुराणों की अवमानना की  मनुस्मृति   जलाई, देवी  देवताओं को गालियाँ  दीं, संतों- महात्माओं पर कीचड़  उछाले, ब्राह्मणवाद की ऐसी -तैसी की, गाँधी जी से भी पंगा लिया, वाइसराय से भी जिद किया, कुछ करना बाक़ी नहीं छोड़ा यहाँ तक कि स्वयं धर्म परिवर्तन कर बौद्ध  भी बन गये । इतना सब कुछ करने के बाद, अभी  थोड़ा सा ही  हासिल कर  सके  हैं। आज भी जब तब उत्पीड़न के शिकार होते ही रहते हैं, और उनका  यह संघर्ष अभी भी जारी है।
      इसके ठीक विपरीत मुसलमान भाइयों  ने क्या किया। मुसलिम वर्ग इस्लाम  से चिपके रहे, उसके वफादार बने रहे, उसका गुणगान करते रहे, रोजे नमाज़ के पाबंद रहे ,मजारों पर चादरें चढ़ाते रहे। कोई परेशानी नहीं है ? इस्लाम  तो एक पूरी सामाजिक व्यवस्था है, इसमे गरीबों और मजलूमों का भी  इंतजाम है। दान और ज़कात की व्यवस्था है, यह इसीलिये की गयी, जिससे गरीबों, मजलूमों का भरण-पोषण हो सके और वे इस धर्म को छोड़ कर किसी अन्य धर्म को अपनाने न लगें  इस कथन में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इनकी इसी  व्यवस्थाओं के कारण आज तक कोई  भी एक ऐसा उदहारण नहीं है कि इस्लाम या ईसाई अपने धर्म से निकलकर किसी  दूसरे धर्म को अपनाया । यह तो  केवल एकमात्र  हिन्दू धर्म ही है, जिससे  बहुत सारे लोग निकल कर इस्लाम या  ईसाई धर्म को अपना लेते हैं और समता, बराबरी,  भाईचारा, मानवाधिकार, स्त्री अधिकार और न जाने क्या-क्या स्वर्ग का सब्जबाग देख इससे निकलकर इन मजहबों की गोदें भरते रहे। ज़ाहिर सी बात  है कि उन्हें हिन्दू धर्म में परेशानी थीयह भी सच है कि उन मजहबों के गुण अब भी उसी प्रकार गाये जाते हैं कहीं कोई  क्षोभ, पश्चाताप या पुनरीक्षण नहीं। वे अब भी वैसे ही समतावादी, मानवतावादी होने के लिए ख्याति प्राप्त करने की होड़ में लगें  हैं। इसे  सबसे उचित और श्रेष्ठ सिद्ध करने में लादेन की अलक़ायदा से लेकर डाक्टर  जाकिर नाइक व एक छोटे से छोटे गाँव का गरीब से गरीब  मोलवी-मौलाना  तक लगा हुआ  है। उधर सुदूर जंगलों और आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियां भी यही काम कर रही हैं। इनकी वकालत में  भारत के महान  बुद्धिजीवी वर्ग  भी यही कहते हैं कि अताताई हिन्दू धर्म से ये निकल कर  न जायं तो क्या करें ! ज़ाहिर है कि वहाँ  उनको एक  भविष्य दिखाई देता है।
  इस बात से यह बात प्रमाणित हो जाता है और जहाँ तक हमें जानकारी है कि इन मजहबों के इन्ही सदगुणों के कारण किसी भी  ईसाई या मुसलिम मुल्कों में आरक्षण की  कोई मांग या कोई  व्यवस्था सुनाई नहीं देती है सब उनकी सुराज के कारण है,  जो हिन्दू धर्म में नहीं हैऔर यह हिन्दू  धर्म केवल हिंदुस्तान में ही है।
      ऐसी दशा  में प्यारे  गरीब  ईसाई - मुस्लिम भाइयों से यह पूछना है  कि वे हिन्दू धर्म की जेहालत - जलालत में क्यों लौटना चाहते हैं ? आरक्षण व्यवस्था उनके अपने दलितों के लिए की  गयी व्यवस्था है। वह भी उनकी गरीबे दूर करने के लिए नहीं, वल्कि उन्हें सामाजिक सम्मान दिलाने के लिए है। गरीबी और गरीबों के लिए तो बी  पी एल कार्ड  है। यदि आप में तनिक भी ईमानदारी है तो उनके हक में आप कृपया छीछा, छीजन न करें। यही न्याय की बात होगी, अन्यथा उन पर  आप से भी अन्याय  होगा वे लोंग तो  पहले से ही दबे हैं।
     निवेदन है कि इन सच्चर रंगनाथ  मिश्र लोगों   पर न जाएँ और अपनी नैतिकता की आवाज़ को सुनेंहिन्दू धर्म की तमाम बुराईयों या अच्छाईयों  में एक यह भी है कि यहाँ एक ईश्वर और एक धर्म सन्देशवाहक नहीं होता है वल्कि तमाम देवताएँ होते हैं। इसी तरह के मनुष्यदेवता ही सच्चर, रंगनाथ  मिश्र जैसे लोग ही हैं। महात्मा गाँधी ने तो अपना जान ही गँवा दिया पड़ोसी मुल्क को कुछ करोड़ रूपये भारत सरकार से दिलवाने के लिए। हिन्दू के दधीच तो आपके लिए अपना  अंग -अंग दान करने के लिए तैयार हो जायेंगेपरन्तु उसे लेना  क्या उनके लिए उचित और शोभनीय होगा?
     इस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए कि देश  का साधारण आदमी देवता नहीं हो सकता वह एक सामाजिक प्राणी हैसेकुलरिज्म या धर्म निरपेक्षता का एक अर्थ पारलौकिकता के अलावा इहलौकिकता  भी है। अब जनता अपने महात्माओं के विपरीत धर्मों की साजिशें और उनकी राजनीतिक रणनीतियां भी बखूबी समझती है  अब भारतीय लोगों को मूर्ख बनाना इतना आसान नही रह गया हैजनता ने देख लिया कि इसी आयोग के एक सदस्य ने दलित व अन्य धार्मिक समुदायों  के लिए आरक्षण के विरुद्ध ही आख्या दे डाला और वह सर्वसम्मत भी नहीं है। हिन्दू दलितों की स्थिति में अन्तर को  यहाँ रेखांकित किया गया है। आरक्षण के समर्थक  कोई भी यह बताये कि मोहम्मद  साहेब के  कार्टून के विरोध में लाखों की संख्या में गरीब मुसलमान लखनऊ और अन्य जगहों पर निकल कर आये , क्या इतने ही संख्या में लोग  अपने गरीबी के विरोध में सामने आये  हैं ? इस्लाम में जो लोग दलितावस्था को  झेल रहे हैं क्या उनमें से कोई इसके लिए सामने आये या कुछ कर रहे हैंतसलीमा नसरीन को वीजा मुसलमानों के भय से नहीं दिया जा रहा है , और भारत में इस्लाम की ताक़त उन्हीं के गरीब मुसलमान वर्ग ही है, न की सारे अमीर लोगइसीलिये , गौर से देखें , सारे अमीर उन्हे आरक्षण दिलाने के लिए ऐंडी चोटी एक कर रहे हैं, परन्तु अब यह नहीं हो सकता है, कि जब समता का मज़ा लेना हो तो ईसाई बन जांयें , इस्लाम ग्रहण कर लें , जब आर्थिक सुविधा लेनी हो तो जय श्री राम का नारा लगायेंयदि लेंना ही है तो हिन्दू धर्म के दोज़ख और नर्क में आइये,  यहीं से गए थे तो अब क्यों पड़े हैं  उस जन्नत में ! वरना तो यदि सेकुलर देश में आप तसलीमा को वीजा नहीं देने देंगे , तो हिन्दू देश भी आपको कोई आरक्षण देने में असमर्थ है। कृपया क्षमा करें।   
                  -- जी0 के0 चक्रवर्ती (priyasmpadak@gmil.com)                     
  --- उग्रनाथ श्रीवास्तव  'नागरिक' (priyasmpadak@gmil.com)

Monday, January 10, 2011

ये तो वक्त बतायेगा


ये तो वक्त बतायेगा
दिनांक – 8/01/2011
चारों तरफ जैसे अराजकता का माहौल सा बना हुआ है। समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठ पर पुलिस से लेकर व्यापारियों 2- जी घोटालों निसहाय लोगों की रैनबसेरों पर सुप्रिम कोर्ट ने सरकारों से जबाब तलब किया और फटकार लगाई की बातों से भरा पड़ा है। 2-जी घोटालों पर कपिल सिब्बल जी ने कैग की रिपोर्ट को इस समय गलत बता कर सारा का सारा दोष बीजेपी सरकार पर मढ़ दिया उनसे ये पुछा जाना चाहिए कि उस वक्त आप क्या कर रहे थे। आपने यह वक्तव्य उस समय क्यों नहीं दिया। इसके अलावा ए राजा को अपने पद से इस्तीफा क्यों देना पड़ा। आज गरीब निःसहाय व्यक्तियों को भयंकर ठंड से बचने के लिए रैनबसेरों का इन्तेंजाम नहीं हो पा रहा है। अभी कहीं घूसखोरी करना हो या बड़ा भ्रष्टाचार करना हो तो देखिए कैसे सरकारी खजाने से धन निकल पड़ेगा। यदि रैनबसेरों का निर्माण कराना हो तो देखिएगा भ्रष्टाचारियों की कैसी लाईन लग जाती है। हरेक आदमी उसमें से धन चुराने के जुगाड़ में लग जायेगा। वेशर्मियत की हद यहीं तक खत्म नहीं हो जाती है, चुनाव आने पर खीसें निपोरते हुए हाथ जोड़ कर अपने लिए गली-गली इन्हीं व्यक्तियों से वोट मागतें हुए उन्हे जरा भी संकोच नहीं होता है और न ही शर्म आती है। मजेदार बात तो यह है कि उस समय तक हमारे भारतीय समाज के यह भोली-भाली जनता उसको भुला कर उनके बहकावे में आकर ऐसे लोगों को अपना बहुमूल्य वोट दे बैठते हैं, और फिर से यह लोग अपना लूट-खसोट का धंधा चालू कर देते हैं। आज मैं देखता हूँ कि हमारे समाज के अधिक्तर लोग दुसरे को बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा करने के जुगाड़ में रहते हैं। जैसे कौआ कौवे का मांस नहीं खाता कौआ दूसरे पंक्षी या जानवरों का मांस खाता है।लेकिन जरा सोचें यदि हमारे समाज का प्रत्येक व्यक्ति कौवे जैसा बन जाये तो फिर कौन किसका मांस नोचेगा ?