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Sunday, August 21, 2011

एक के बाद एक अड़ंगे ।


एक के बाद एक अड़ंगे
दिनांकः-21/8/2011

आज भारत के दूसरे गांधी कहलाए जाने वाले अन्ना हजारे के अनशन को लेकर जहां पूरे राष्ट्र में अनशन और प्रदर्शन करने की होड़ सी मची हुई है, वहीं विदेशो मे भी इसकी चर्चाए हैं। जैसा कि अन्ना हजारे का अनशन सोलह 16 अगस्त 2011 से दिल्ली के जेपी पार्क मे शुरु होने वाला था लेकिन सरकार ने अपने एक गुप्त रणनीति के तहत अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर जेल मे डाल भेज दिया। वास्तव मे सरकार ने यह कोशिश मे लगी हुई थी कि अन्ना हजारे को 144 के उल्लंघन का हवाला देते उन्हें जेल मे डाल दिया जाए और फिर उनके अनशन की हवा निका कर बाबा रामदेव की तरह अन्ना को दिल्ली से बाहर उनके गाँव पहुँचा  दिया जाए। लेकिन हुआ ठीक इसका उल्टा, सरकार का ही दांव खुद सरकार पर ही उल्टा पड़ गई। और अन्ना की जिद के आगे सरकार हक्की-बक्की रह गई । केंद्र की इस कार्यवाही की  वजह से सम्पूर्ण राष्ट्र के लोगों के गुस्सा की आग मे घी का काम किया जिसके परिणाम स्वरुप पूरे देश को इस आग की लपटों ने अपने आगोश मे ले लिया, और देश के हर कोने-कोने में लोगो ने वंदे मातरम”, “जय दिन्द, अन्ना हम तुम्हारे साथ हैँ जैसे नारे लगा कर अपना विरोध प्रदर्शन करते हुए बहुसंख्यक लोग अपने-अपने घरों से निकल कर अन्ना के अनशन को चार-चाँद लगा कर आसमान के बुलंदीयो तक पहुँचा दिया। इस तरह का नजारा आज 64 बर्षो के बाद एक बार फिर दिखाई पड़ा। हमारे देश के जन मानस ने यह अनुभव किया कि भारत माँ की हम सभी संताने हिन्दु हो चाहे मुसलमान सभी  इस भ्रष्ट्चार और भ्रष्ट्चारीयों के विरोध मे एक साथ अपने घरों से निकल कर अन्ना के साथ सड़कों पर आ खड़े हुए। जाँहा तक इस हुजूम में गरीब,मध्यम और अमीर लोगों की बात है जहाँ तक अंग्रेजी शासन की बात है अमीर तबके के लोगों को उस समय के अंग्रेजी शासन से कोई खास तकलीफ नही थी और आज भी उन्हें भ्रष्टाचार से कोई खास फर्क पड़ने वाला नही है जो पहले से अमीर थे वह लोग तो हैं ही वल्कि आज भ्रष्टाचार कर के बने अमीरो ने अमीरो की संख्या मे और इजाफा हो गया। इस भ्रष्टाचार से सबसे ज्यादा हमारे देश के गरीब या मध्यम वर्ग जनता ही शोषण और अत्याचार के शिकार हुए। इस अत्याचार शोषण और भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर आज सड़को पर उतर आयें हैँ। इस जन सैलाव को यदि इस समय संतुष्ट कर नियंत्रित नही किया गया तो आने वाले कुछ एक दिनो मे यह जन सैलाव विकराल रुप मे परिवर्तित होते देर नही लगेगी। लेकिन लोकपाल बिल की इस लड़ाई में अब तीसरा पक्ष भी धिरे-धिरे सक्रिय होने लगा है। इस तीसरे पक्ष की ओर से अरुणा राय ने कहा है कि सरकार ने जो लोकपाल बिल संसद में पेश किया है, उसमें हमारी बातें कतई शामिल नहीं हुई हैं। इसलिए हम स्‍टैंडिंग कमेटी के सामने अपनी बात को अवश्य रखेंगे। जैसा कि स्‍थायी संसदीय समिति ने लोकसभा में पेश लोकपाल बिल पर सभी को अपने सुझाव देने के लिए आमंत्रित किया है। इस तरह एक तरफ यह भी लोकपाल बिल पर यह अंदेशा है कि कहीं ऐसा न होए कि फिर कुछ दिनो बाद एक और संस्था चौथा पक्ष फिर पाँचवा पक्ष सामने आ कर कहे कि हमाने जो बिल बनाया उसे भी स्डैंडिंग कमेटि के सामने रखा जाए इस तरह पुरे देश से एक के बाद एक बिल आते रहेगें तो इस पर सरकार को या स्डैंडिंग कमेटि को मौका मिल जाएगा कि हम किसी भी बिल को नही वल्कि सरकारी लोकपाल बिल को संसद ही संसद से पारित करा लेगें। यह बात अधिक्तर लोगों के गले नही उतरती है कि यह तिसरा पक्ष अभी तक कहां पर सोए हुऐ थे, लगता है उन्हें अन्ना के लोक प्रियता को देख कर अपने लिए भी लोक प्रियता जुटाने और लोकपाल बिल पर राजनीति करने लगे। और अब कहने लगें कि हमारे लोकपाल बिल के सुझावों को भी स्डैंडिंग कमेटि के सामने रखा जाए। इस तरह तो हमारे देश के प्रबुद्ध लोग भी रोज एक बिल बना कर स्डैंडिंग कमेटि के सामने रक्खने लगेंगे या रक्खे जाने की बात दोहराएगें। अगर इस पर अभी सोचा नही गया तो इस लोकपाल बिल के पास होना हम भारतीय जन मानस  के लिए एक स्वपन बन कर रह जाएगा।
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Monday, August 1, 2011

क्या सभ्यता से असभ्यता की ओर ?


क्या सभ्यता से असभ्यता की ओर ?

     
                                                                            दिनांकः-1/8/2011
बेशर्मी का मोर्चा यानी स्लटवॉक महिला उत्पीड़न के विरूद्ध कल दिल्ली की सडकों पर लडकियां बेशर्मी का मोर्चा यानी स्लटवॉक निकाला। इस प्रदर्शन मे लड़कियां कम और लड़के ज्यादा नजर आ रहे थे। आज से तीस-चालीस साल पहले से विदेशी लोग भारतीय पहनावा अपनाते व पसंद करते रहे हैं वतौर जव्लंत उदाहरण स्वरुप हमारे देश की कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनियां गाँधी स्वंय एक विदेशी महीला है या थी लेकिन उन्होने आज हमारे भारतीय स्त्रीयो की परिधान को ही अपने लिए चुना खैर इसका जो भी कारण रहा हो यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन हम भारतीय लोग आज विदेशी पहनावे और संस्कारो को अपनाते चले जा रहे हैं इसका अर्थ यह हुआ कि विश्व की जो सभ्यताएं बहुत बाद से विकसित हुई वहां के लोग बहुत समय पूर्व लगभग या कहें नंगे ही रहा करते थे वे लोग आज सभ्य समाज और पहना ओड़ना सीख गए हैं और ठिक इसके विपरीत भारत के लोग विशेष कर महिलाएं अपने कपड़े कम करती ही चली जा रही हैं। भारतीय नारी और उसकी सौम्यता का दूनिया भर मे चर्चाएं होती रहती है। लेकिन आज हमारा समाज आधुनिकता और दूसरो की नकल करके वैसा ही दिखने और बनने के नाम पर सभ्यता और शालीनता की ईती श्री करता  चला जा रहा हैं और कल तक इस मामले मे सभ्य और उत्कृष्ठ कहलाने वाला यही समाज नकलची बंदर जैसे संबोधनो से पुकारा जाए तो क्या हमारा देश या हमलोग एक सभ्य देश के सभ्य नागरीक कहलाने के हकदार रह जाएंगे। आखिर कार बंन्दर तो एक जंगली या जानवर ही है फिर भी ये देखिए जो पहना ओड़ना नही जानते थे उन्होने हमारा पहनना ओढ़ना सिख लिया और हम अपने सांस्कृतिक भेष-भूषा का परित्याग कर दूसरे देश की सांस्कृतिक और भेष-भूषा अपना कर यह समझ रहे हैं कि हमने बहुत तरक्की कर ली है वास्तव मे इस तरह क्या हम तरक्की कर लेगें या हो जाएगा, जबकि ऐसा कदापि नही वास्तव मे कल और आज तक हम और हमारे देश की लड़कियां, महिलाएं और माँतए एक सभ्य और संसकारी ही समझी जाती रही हैं और समझी जाती रहेंगी यह तभी संभव होगा जब हम अपने आने वाले पिढ़ी को भारतीय संस्कार और संस्कृती से परीचित कराए और उनके अन्दर इसे कूट- कूट के भर दें नही तो -जिन लोगों का समाज और लोग सभ्य कहलाए जाते रहें वही समाज आज असभ्यता को अपना कर अपने आपको, समाज एवं भारतीय संस्कृती को पतन की ओर ले जाने मे कोई कसर नही छोड़ेगें। फिर भी क्या हमारे समाज और समाज के लोगों  उन्नत ही कहलाएगें ? इस पर मुझे एक घटना  याद है जो संक्षेप मे इस तरह से है आज से लगभग तिस-पैतिस साल पहले जब शायद आज के तुलना मे हमारा देश और देश वासी उन्नत नही हुआ करते थे मेरे छोटी बहन की एक सहेली जो हमारे याँहा अक्सर आया-जाया करती थी, हम उम्र होने के कारण मेरी बहन और उस मे बहुत ही घनिष्टता हुआ करता था। मै मेरी बहन की सहेली के ऊपरी दिखावे की बात मै कर रहा हुं कि बह दूबली पतली और संबली तो थी ही ऊपर से उसके आँख के ऊपर की भौंए बहुत मोटी होने की बजह से उसका चेहरा देखने मे बहुत भद्दी लगती थी उसे न जाने कहाँ से वियूटी पार्लर की बात पता चल गई उसने अन्न-फन्न अपनी भौं को कटा कर नुकिली एवं संवार लिया महीनो गुजर जाने के बाद एक दिन अचानक बह हमारे घर पर आई तो उसका चेहरा बिल्कुल बदला-बदला सा लग रहा था इस पर मेरी बहन ने उससे उसके बदले हुए चेहरे का कारण पुछा तो उसने बताया कि देखो फलाने तुम अपनी मम्मी से या किसी और से इसका जिक्र न करना कि तुम्हारी आँख की ऊपर की भौंए भी बहुत भद्दी लगती है तुम भी मेरी तरह अपनी भौं कटवा लो तो तुम भी बहुत अच्छी और मेरी तरह खुबसूरत लगने लगोगी। जबकि प्राकृतिक रुप से मेरी बहन की भौं नुकीली एवं सुन्दर थी। इस पर मेरी बहन ने कहा कि भौं कटवाने के लिए क्या करना पड़ेगा इस पर बहन की सहेली ने उससे कहा कि देखो हम अपने आप तो आपनी भौं काट नही सकते हैं इसके लिए तुम्हे किसी व्यूटि पार्लर मे जाना होगा और वहाँ इस काम के लिए सौ रुपये देना होगा। अरे बाप रे बाप इतने रुपए मै कहाँ से लाउंगी अगर पिता जी से कहा तो कल ही बह मुझे घर से बाहर निकाल देंगे ऊपर से पिटाई अलग होगी नही-नही रहने दो मुझे भौं नही कटवाने हैं। आज से तीस-पैंतिस साल पहले सौ रुपये बहुत मूल्य रखते थे और व्यूटी पार्लर शहर मे इक्का-दूक्का ही हुआ करता था।  मेरी बहन की सहेली बहन को बहुत फूसलाती रही परन्तु जब मेरी बहन किसी तरह उसके बहकावे मे नही आई तो उसने एक युक्ति निकाली कि देखो मै पार्लर मे कैसे भौं काटते है इसे देखते-देखते बहुत कुछ मै करना सिख गई हुँ अगर तुम चाहो तो मै खुद ही तुम्हारी भौं को सेट कर सकती हुँ। यह सुन कर मेरी बहन बहुत खुश हुई लेकिन भौं काटने के लिए कैंची और कंघी की जरुरत तो होगी ही इस समस्या का हल ऐसे निकाला, मेरी बहन ने अपनी सहेली को बताया जब मेरे पिता जी अपने नौकरी पर चले जाएंगे तो मै उनकी मोंछ काटने वाली कैंची और छोटी कंघी उनके दाढ़ी बनाने वाले झोले मे से निकाल लूंगी। लेकिन दूसरी समस्या यह है कि बैठा कहां जाएगा इस पर बहन की सहेली ने कहा की परसों मेरे म्मी पापा बजार करने के लिए घर से निकलेगें उस वक्त मेरे घर पर कोई नही होगा तुम मेरे घर पर आ जाना इस तरह बहन की सहेली ने भौं बनाने का प्रोग्राम तय किया, और जल्दि से अपनी बात समाप्त कर थोड़ी देर बाद मै फिर आऊंगी कह कर बह अपने घर चली गई दूसरे दिन शाम को मुझे मेरी बहना का चेहरा कुछ अजीबोगरीब या कहें  बदला-बदला सा लगा। घर का सबसे छोटा सदस्य होने के कारण मै सबका दूलारा था मुझसे बड़े अन्य भाई-बहने मुझे सहसा डांटने फटकारने की हिमाकत नही करते थे, मेरे मूहँ से अचानक निकल पड़ा कि दिदी आज तुम बंदरीयां जैसी क्यो लग रही हो, यह तुम्हारे चेहरे को क्या हो गया यह कहते हुए मै चिल्ला पड़ा कि देखो-देखो मम्मी आज ये बंदरीयां जैसी लग रही है, जरा जल्दि आ कर इसे देखो तो, बस मेरा इतना कहना था कि माँ अपने किचन मे ही खड़ी-खड़ी एक झलक बहन पर डाल कर चिल्लाई कि वास्तब मे यह सही कह रहा है तुम्हारा चेहरा आज बहुत विकृत लग रहा है ये तुमने अपने भौंए क्यों कहां से और कैसे कटवा लिए किसने कहा था माँ का इतना कहना था कि बह रोते हुए बोली कि बह जो मेरी सहेली आती है न उसने अपनी भौं कही पर कटवाया था, लेकिन मैने जब पैसे देकर अपनी भौं संवारने के लिए मना कर दिया तो उसने खुद ही मेरी भौं संवार कर सुंदर बना दिया। इस पर माँ बोली कि अपने आप को सुन्दर मान लेने से या अपने आप कहने से व्यक्ति सुंदर नही हो जाता है प्रकृतिक रुप से जो जैसा है वैसे ही सुंदर है बनावटी सुंदरता तो क्षणिक समय को लिए होता है तन की सुंदरता तो क्षणभंगूर है मन और सोच मे सुंदरता ही मनुष्य की वास्तविक सुंदरता है। मात्र शरिर पर के कपड़े कम कर लेने या कम करने के लिए रोकना मात्र से महिला उत्पीडन का मापदंड नही हो सकता है बात रह गई लड़कियों महीलों से छेड़छाड़ और छीटाकशी की बात है हम सब सामाजिक प्राणी हैं और इस समाज से बाहर रह कर नही जी सकते है हमारे समाज के लोग जैसा पहनावा पहनते जो बढिया से बढिया खाते पीते हैं उसका ही हम सब अनुसरण करते हैं। समाज से हट कर अगर कुछ अनहोनी तरह से बोलना खाना पिना ओढ़ना चाहें तो हम खुद ही अपने समाज से कट जाएंगें इस तरह तो समाज के मुख्य धारा से कटे हुए लोगों को समाज से बाहर जंगल मे निवास करना पड़ेगा। समाज की बत तो दूर हम अपनी ही उन्नती को संकीर्ण करते चले जाएंगे।  जब मनुष्य कपड़े बुनना नही जानता था तब सभी लोग पेड़ के पत्तों से शरीर की नंगनता को ढकते थे यह बात अलग है कि वर्तमान समय मे पेड़ पौघे कम होते जा रहे है और उसकी जगह मशीनो कारखानो ने ले लिया। प्रकृति के नियमानुसार समय अपने आप को दोहराता है, तो क्या आज मनुष्य उसी दौर मे पुनः प्रवेश कर रहा है, कर चुका है या करने वाला है?
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Friday, July 1, 2011

प्रधान मंत्री की चुप्पी ।


प्रधान मंत्री की चुप्पी
दिनांक – 1/7/2011
जैसा कि दिनांक 29 जून 2011 को प्रधान मंत्री जी अपनी चुप्पी तोड़ते हुए संपादको से बात-चीत किया और आगे भी करते रहने की बात को दोहराया किसी भी लोकतंत्र की पहली जरुरत जनता से संवाद के परिपेक्ष मे सरकार की नीतियों और पतिक्रिया जनता तक समय समय पर पहुंचते रहने से सरकार और जनता के बीच संवाद हीनता की स्थिती पैदा नही होती है साथ ही साथ सरकार की पारदर्शीता बनी रहने से जनता और सरकार के बीच का रिस्ता मजबूत करने मे सहायक होता है। पिछले कुछ एक महीनो से देश में हो रहे हलचलों और सरकार पर लगने वाले तरह-तरह के ईलजामो के वाबजूद सरकार या मुखिया की ओर से कोई प्रतिक्रीया उत्तर न देने या वस्तु स्थिती को स्पष्ट करने की कोई कोशिस करने की जरुरतल भी महशूस नही की गई जिसके चलते संसय पूर्ण स्थिती और भी उलझती चली गई। इस परिदृश्य में प्रश्न यह उठता है कि आखिर कार इसकी क्या वजह रही होगी जो सरकार को इतने दिनो तक चुप्पी साधे रहने के लिए मजबूर होना पड़ा ? इस परिपेक्ष मे यह कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए नही किया गया क्योंकी की संसद पटल पर बील के रखते ही उसमे तरह-तरह के बहस और प्रतिक्रिया  होना स्वाभाविक है जिससे सरकार को सामना करना पड़ता और दूसरी पार्टीयों के लोंगो को समझाने या मनाने का काम सरकार के लोगों को करना पड़ता ऐसे मे दूसरी पार्टी के लोग बील को पास करने के लिए सरकार के सामने अपनी शर्ते रखते, लेकिन चुप रहके यह काम अन्ना हजारे और उनके दल के लोगों के जरिये पहले कर लेने से सरकार का बोझ हलका होने के साथ ही साथ बील के पास होने की गुंजाईश भी बढ़ जाएगी और सरकार इस सफलता का सेहरा अपने सर जरुर बंधवाना चाहेगी यहां दूसरा प्रश्न उठता है कि अगर स्वयं प्रधान मंत्री के पद को लोकपाल के दायरे मे आने से कोई गुरेज नही है जहां तक न्यायपालिका के जजों की बात है यह तो समझ मे आता है लेकिन प्रधान मंत्री के पद के लिए दूसरों को आपत्ती क्यों और इसका कारण क्या हैं? इसे स्पष्ट करने के साथ ही साथ दूसरे अन्य मुद्दों पर भी असहमति के कारणों को भी स्पष्ट करना जरुरी है। जहां तक सशक्त लोकपाल का सवाल है क्या प्रधान मंत्री पद और जजों के पद इसके दायरे मे आने मात्र से ही लोकपाल सशक्त बन जाएगा ऐसा नही है जब तक यह सुनिश्चि नही होगा कि इस लोकपाल के अन्तर्गत आने वाले मामलों को कौन, कब, कैसे देखेगा और इसकी जिम्मेदारी किस पर होगी। इस मामले को लेकर दोनो पक्षों मे अभी भी विरोध बना हुआ है उधर केंन्द्र सरकार इसकी निगरानी खुद अपने पास रखने की बात कह रही है तो दूसरी तरफ सिवील सोसाईटी के प्रतिनीधी अपने पास रखने की बात कह रहे हैं अब सवाल इस बात का है कि अगर यह जिम्मा सरकार के पास रहता है तो क्या सरकार या सरकार के लोंगो की इसमे कोई दखल अंदाजी नही होगी इस बात की क्या गारंटी होगी ? या भविष्य में इसके सिवील सोसाईटी प्रतिनीधी भी भ्रष्टाचार के आगोश मे नही आ जाएंगे यह कौन कह सकता है और अगर ऐसा हुआ तो उन पर किस प्रकार की कार्यवाही सुनिश्चित किया जाएगा ऐसे कुछ एक ज्वलंत मुद्दों को सुलझा कर और सभी पहलूओं पर सोच समझ कर फैसला करने की जरुरत है। अभी शुरुआत मे देश के जनता के बीच से कुछ लोग खड़े हो कर अनशन आंदोलन चला कर और बाद मे जन समर्थन हासिल कर सिवील सोसाईटी के प्रतिनीधी बना लिए गए, लेकिन आने वाले दिनो मे क्या एक और सिवील सोसाईटी प्रतिनीधी के चुनाव का खर्च भी देश को वहन करना पड़ेगा ? ऐसे कुछ एक मुद्दों पर दोनो पक्षों को बिना किसी लाग लपेट के सोचना पड़ेगा और अभी वर्तमान मे अगर इस बात पर नही सोचा गया तो आगे आने वाले भविष्य मे इस लोकपाल विधेयक और इसके कानून पर इसी जनता की अंगूलीयां उठने मे देर नही लगेगी।       

Thursday, March 24, 2011

एक खेल सोच का


एक खेल सोच का
दिनांकः- 25/3/2011
ममुष्य की महत्वाकांक्षाओ ने दूसरो के हक और अधिकारो को हमेशा कुचला है। इस पर वह व्यक्ती चाहे अपने चाहत को पा सका हो या नही परन्तु न जाने कितने ही लोग इस प्रक्रिया से परोक्ष अपरोक्ष रुप से प्रभावित हुए होंगे लेकिन सफल या असफल हुए व्यक्तियों ने पलट कर एक बार भी नही देखा होगा कि क्यों कब और कैसे वास्तव मे क्या हमने या हम मे से कितने लोगो ने इस विषय पर सोचा होगा। कदापि नही प्रत्येक मनुष्य अपने समाज और लोगो से अनेको आपेक्षाएं रखता है लेकिन उस व्यक्ति ने क्या कभी सोचा है कि समाज और समाज के लोग भी उनसे कुछ आपेक्षाए रखते हैं। ऐसे मानविक अवस्थाओ पर यदि गौर करें तो ऐसे व्यक्ति एक स्वार्थी किस्म का व्यक्ति कहलाएगा। क्यों कि ऐसा व्यक्ति प्रत्येक मामले मे केवल अपने तक ही सीमित रह कर काम करता है। वृहत सोच रखने वाले इंसान समाज मे बहुत कम हैं। कुछ लोग ऐसे हैं भी तो वे यहां तक पहुंच नही पाते और पहुंच भी जाते हैं तो इतने सामजिक शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करने के बाद, उनके ह्रदय दूसरो के प्रति भावनाएं शुन्य हो जाता है, इस अवस्था मे यह जरुरी नही है कि वह व्यक्ति समाज में उच्चतर स्तर पर पहुंचने मे सफल हो जाएं। साधारणतः प्रत्येक इंसान मे कुछ न कुछ कमी अवश्य होती है, चाहे उसका स्तर एवं अवस्थाएं कुछ भी हो सकती है। लेकिन साधारणतः उसी व्यक्ति को सफल होता देखा गया है जो त्वरित एवं सही निर्णय लेने मे सक्षम हो। यदि आप ने निर्णय लेने मे तनिक भर भी देर किया तो उसका प्रभाव कम तो होगा ही साथ साथ उसका प्रतिफल भी विपरीत होगा। त्वरित एवं सही निर्णय लेने के लिए एक साकारत्मक और बंधन मुक्त सोंच रखने वाले मस्तिष्क की आवश्यक्ता होती है। मस्तिष्क की यह सोंच मनुष्य को सामाजिक स्तर के उच्चाई तक पहुंचाने मे सहायक होती है। लेकिन सामाज मे एक स्तर पर पहुंच कर यदि आप त्वरित एवं एक सही निर्णय लेने मे असमर्थ होते है तो आपके निर्णय लेने कि क्षमता का ह्रस हो चुका है, या उस पद और स्थिती पर आप निर्णय लेने मे पूर्ण रुप से अक्षम होने के साथ ही साथ उस के योग्य भी नही है। ऐसी स्थिती में आप स्वंम का आंकलन किजिए क्यों की आपके द्वारा लिया गया निर्णय का प्रति फल आप ही नही वरन् आप से जुड़े सभी लोगों पर पड़ेगा और उन्हें भी उसका फल भोगने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।

1-      शिष्य के कुकर्म का फल उसका गुरु भोगता है।
2-      माता- पिता के कुकर्म या गलत निर्णय का फल उनकी संताने भोगती है।
3-      राजा के कुकर्मो का फल उसकी प्रजा भोगती है।
4-      समय से पहले किया गया कर्म एक कली को तोड़ने जैसा है।
5-      दस मुर्ख मित्रों से अच्छा एक बुद्धिमान शत्रु होता है।

Sunday, February 27, 2011

एक के बाद एक भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी


एक के बाद एक भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी


दिनांक – 27/2/2011
विदेशी बैंको मे जमा धन के मुद्दे पर अभी तक हम सभी ने बहुत कुछ लिखा पढ़ा और सुना अब विदेश मे जमा काले धन की स्वदेश वापसी मुद्दे पर हमारी सरकार गंभीर नही दिखाई पड़ रही है। बहुत दिनो तक इस पर होहल्ला चला अब इस मुद्दे पर से सभी लोगों का ध्यान हट गया, या धीरे-धीरे देर सवेर हट जाएगा सबके-सब एकदम खामोश और अब शुरु हुआ, अपने ही देश मे बैठे अरुण मिश्रा जैसे UP SIDC के चीफ इंजीनियर स्तर के एक कर्मचारी ने अकूत धन बैंको के वेनामी खातों मे और अनेको अचल संपत्तियां इकट्ठा होने के मुद्दे ने जोर पकड़ लिया है। इसकी जानकारी अभी CBI द्वारा उनके घर से लेकर कार्यालय पर मारे गये छापे से यह मालूम हुआ कि मनी लाँण्ड्रिंग के मामले के  रहस्य पर से पर्दा उठते-उठते एक अरब रुपए  के घोटाले होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। बहुत मात्रा मे धन, चल-अचल संपत्तियां अरुण मिश्रा ही नही ऐसे अनेको भ्रष्टाचारियों के लाकरों से लेकर उनके कब्जे मे फँस कर सड़ रहे होंगे। इस तरह हमारी अर्थव्यवस्था का सफेद धन, काले धन मे बदल कर हमारे अर्थ व्यावस्था से बाहर हो गया। जिसका प्रभाव परोक्ष-अपरोक्ष रुप से बाजार भाव से लेकर आर्थिक गती विधीयों मे पड़ना तय है। हमारे देश की गरीब जनता कठोर मेहनत करने के बावजूद और गरीब होता जा रहा है, धनी और धनी। इस पर भी हमारे देश की पार्टीयाँ और सरकार आर्थिक संपन्नता की बात करती है आर्थीक संपन्नता के मामले मे हमारे देश की गरीब जनता आर्थिक संपन्न भले ही न हुए हो भ्रष्टाचारी जनता जरुर आर्थिक संपन्न हो गये हैँ और हमारी सरकार कागजों मे ऐसे जनता की संपन्नता का आकड़ा दे कर हमारे देश की आर्थीक तरक्की की बात बड़े गर्व के अपने पार्टी की उपल्बधीयों का वखान समाचार पत्रो से लेकर दुर्दशन पर समय- समय करती रहती है। हमारे देश मे आर्थिक संपनता और समानता तभी आ सकती है जब पार्टीयां और सरकार वास्तव मे गरीब जनता के उत्थान और संपनता के लिए ईमानदारी से नही सोचेगी। यदि हमारे देश मे भ्रष्टाचार पर सर्वेक्षण कराया जाए तो देश की कुल आबादी के 25 से 30 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार मे लिप्त पाये जाएगें। भले ही छोटा आदमी छोटा भ्रष्टाचार बड़ा आदमी बड़ा भ्रष्टाचार इन सभी भ्रष्टाचारीयों का काला धन वटोर कर देश के गरीब जनता मे समान रुप से बांट दिया जाना चाहिए। क्यों कि यह उन्ही लोगो का और हमारे देश की जनता का ही धन है और इस धन की कमी की बजह से न जाने कितने गरीबों को कफ़न तक से वंचित रहना पड़ा होगा।

Thursday, February 24, 2011

सफलता चाहिए कि...... ?


सफलता चाहिए कि...... ?
दिनांकः-25/2/2011
किसी भी मनुष्य को अपने जीवन में सफलता पाने का एक सिद्धांत है। आप परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लें या परिस्थितियों के अनुकूल स्वंम बन जाएं। सभी परिस्थितियों में एक जैसा रह कर विचलित न होना सफलता पाने की पहली शर्त है। न जाने हमारे जीवन में कब,  कौन-सी समस्या किस रुप में आ जाए। इसके लिए हमें हमेशा चौंकना और सजग प्रहरी की तरह रहना पड़ता है। जीवन में जिन का तरीके और जिनके मर्यादित रुप से जीवन निर्वाह करने एवं प्रबंधन का एक सूत्र यह है कि यदि आप समाधान का अंग नहीं हैं, तो फिर आप खुद एक समस्या हैं। समाधानकारी चरित्र हमें जीवन तत्वों का सही उपयोग करते हुए व्यक्तित्व विकास की ओर ले जाने की प्रेरणा देता है। ऐसा न हो कि आज सफल हुए, लापरवाही के कारण या किसी अन्य बजह से भविष्य में सफलता आपके जीवन से फिसल जाए। जिस तरह  ताश के खेल में जो अपने पत्तों को छुपाना जानता है उसे ही एक अच्छा खिलाड़ी समझा जाता है। लेकिन जिन्दगी के मामले में यह विपरीत है। छुपाना व्यक्तित्व का एक दोष है। इसके ठीक विपरीत खुलापन एवं उदारता शांति का प्रतीक है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व की पारदर्शिता है। वास्तव में एक मनुष्य का जीवन और व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए जैसे किसी पुस्तकालय की मेज पर पड़ी हुई एक खुली किताब या समाचार पत्र जो चाहे जब भी पड़ ले। दुरुहता एवं छिपाव, से व्यक्ति के अन्दर की सहजता समाप्त हो जाती है। अक्सर यह देखने में आता है कि खुले दिलो-दिमाग के लोग अपनी उन्नति में अपने से जुड़े लोगों को भी समान रुप से सम्मिलित करते हैं। अपने जीवन में खुलापन बनाये रखने से व्यक्ति के अन्दर सत्य का निर्माण होकर हिम्मत एवं साफ सुथरी चीज को पसंन्द करने जैसी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। वर्तमान समय में यह देखने को मिल रहा है कि लोग अकारण ही छोटी से छोटी बात पर भी बहुत आसानी से झूठ बोलते रहते हैँ, ऐसे लोगों पर यह यकीन करना बहुत ही कठिन हो जाता है, कि उनके द्वारा कही बातों में से कौन सी सच और कौन झूठ। मेरे समझ से यदि मनुष्य अपने जीवन में झूठ के स्थान पर सच को आधार बना कर चले तो निश्चित रुप से मनुष्य का जीवन निर्भय और दुखः कलेश से मुक्त तो होगा ही साथ ही साथ हम अपने जीवन में निश्चित रुप से सफल भी होंगे।

Tuesday, February 15, 2011

देख तेरे इन्सान की हालत क्या हो गयी भगवान........


देख तेरे इन्सान की हालत क्या हो गयी भगवान.........
दिनांक -14/02/11
आज हमारे देश में चारों तरफ  आम आदमी खाद्य वस्तुओं की महंगाई से लेकर सभी वस्तुओं में 17 फीसदी का इजाफा और भ्रष्टाचार की वजह से सरकार में उसकी आस्था की जड़ों को हिला कर रख दिया है। आज देश के अधिक्तर लोगों के अन्दर यह बात पैठ गयी है कि सरकार और नौकरशाह खूब पैसे बना रहे हैं, जबकि जनता को उसके एक-एक बुनियादी वस्तुओं के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। समाज के हर व्यक्ति के अन्दर एक मंद अग्नि सी सुलगती हुई दिखाइ दे रही है। लोग परिस्थियों से संघर्ष करते हुए, देखते हुए, सुनते हुए, झेलते हुए, समाज के प्रत्येक मनुष्य के अंतःकरण में एक सुशुप्त ज्वालामूखी का निर्माण हो चुका है। प्रत्येक समाज की सहन शक्ति का एक निश्चित मापदंड है। हमारे समाज के कुछ लोग इस समय तो मौन हैं, कुछ एक लोग लगातार अपने शब्दों से, और कुछ लोग अपने लेखन द्वारा समय-समय पर इस पर कुठाराघात करते चले आ रहे हैं। कुल मिला कर समाज का प्रत्येक मनुष्य अपने घर से लेकर समाज तक में होने वाले परिर्वतनों, घटित घटनाओं से बहुत प्रभावित होकर क्या करे या न करे की स्थिती तक पहुँच गये हैं किसी भी समाज की यह स्थिति अत्यन्त विस्फोटक या खतरनाक होती है। अभी-अभी हमने मिश्र की जन आन्दोलन की विस्फोटक स्थिति को पढ़ा, सुना व देखा। ऐसी स्थिति अचानक पैदा नहीं होती है, बल्कि यह स्थिति अनेकों वर्षों के बाद समाज की सहनशीलता लांघ कर विस्फोटक स्थिति के उच्चतम शिखर पर पहुँच कर विस्फोट होता है। समाज में ऐसी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब प्रशासन कुछ न कर पाने की स्थिति में आ जाती है और तब जनाक्रोश सहसा फूट कर सब कुछ तहस- नहस कर देता है।  इस समय जनता के सामने सबसे अहम मुद्दा बढ़ती हुई किमतों को लेकर है। आज मध्यम वर्ग से लेकर समाज के गरीब तबकों  मे एक ही स्वर सुनाई दे रहा है कि क्या करें किस तरह अपने परिवार को चलायें ,बच्चों को शिक्षा-दीक्षा दिलाएं एवं घर में विमार चल रहे बड़े बुजुर्ग मरीज का इलाज कैसे कराएं कुछ भी समझ में नहीं आता। पिछले ढेड़ सालों में दवाओं की कीमतों के साथ-साथ लगभग सभी वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऊपर से नकली दवाइयों, खाद्यान्न से लेकर मिट्टी के तेल व पेट्रोल तक में मिलावटखोरी दूध, घी से लेकर नकली दवा बनाने वालों एवं मिलावटखोरों पर अनेकों बार छापे डाले जाते रहे, कुछ एक दिनों तक मीडिया से तरह- तरह के समाचर पत्रों में छपते रहे, अंत में इस संम्बंध में क्या हुआ उसका अता पता ही नहीं चला। अभी-अभी कुछ दिन पहले महाराष्ट्र प्रदेश में प्रेट्रोल में मिलावट करने वाले गैंग पर एक अधिकरी द्वारा छापा मारा गया तो वे अपने जान से हाथ धो बैठे। इस घटना से हमारे समाज के उन बचे गिने-चुने कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों एवं ईमानदार व्यक्तियों के मध्य क्या संन्देश गया कि ईमानदारी करो और जान से हाथ धो बैठो। आज हमारे समाज में शासन ही भ्रष्ट्रजनों को बचाने के लिए उन्हे अंगरक्षक देती है और निरीह ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति खुलेआम भ्रष्ट्राचारियों के शिकार होते रहेंगे तो समाज के छुपे हुए गद्दारों-भ्रष्ट्रजनों, जमाखोरों और मिलावटखोरों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले लोग यदि धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे  तब हमारे देश और समाज का एक वीभत्ष रुप उभर कर हमारे सामने होगा उस स्थिति की परिकल्पना करके आज साधारण जनमानस के रोंगटे खड़े हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे समाज में घटने वाली ऐसी घटनाओं पर कुछ एक दिन बड़े ही गर्मजोशी के साथ समाचार पत्रों में छपने के साथ-साथ अधिकारी वर्ग सक्रिय रहते हैं उसके बाद वही मिलावटखोर दुसरी जगह अपना धंधा शुरु कर लेते हैं और सब कुछ ठंडे बस्ते में चला जाता है। और कभी न खत्म होने वाला सिलसिला पुनः शुरु हो जाता है। दरअसल यहां कोई ऐसा नियम-कानून और उसे शक्ती से लागू करने वाला वर्तमान समय मे नहीं दिखाई दे रहा है। शायद भविष्य में इस काली रात में कोई उजाले की एक किरण दिखाई पड़े।

Saturday, February 12, 2011

ज्ञान का विज्ञान


ज्ञान का विज्ञान
दिनांक – 12 फरवरी 2011
मनुष्य का ज्ञान सामाजिक व्यवहार से या बाहरी दुनिया में, उत्पादक–कार्य या भौतिक संम्पर्क के माध्यम से पैदा होता है। अपने आरम्भिक काल में हमें इन्द्रियबोधी ज्ञान होता है, जो कि हमारे इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया गया या वाह्य प्रभावों पर आधारित होता है। लेकिन यह प्रत्येक  मनुष्य में धीरे–धीरे चिन्तन-मनन एवं विचार–विमर्श के माध्यम से और तर्कसंगत ज्ञान के धरातल पर पूर्णतः विकसित होकर अनेकों सिद्धान्तों को जन्म देती है, और यह ज्ञान धीरे-धीरे तर्कसंगत ज्ञान की अवस्था में आ जाने पर वाह्य समाज व दुनिया के सुधार के लिए मनुष्य द्वारा व्यवहार में लाया जाता है, और लगातार इस प्रकार का प्रयास करते रहने से ज्ञान पहले से और अधिक सशक्त, समृध और प्रखर होकर सामने आता है। ज्ञान में समाज और प्रकृति दोनों शामिल हैं। इस तरह मानवीय अभिकर्ता इसे बदलने का प्रयास करता है या खुद इसके द्वारा बलद जाता है। इसमें कोई अलग-अलग आदमी ही नहीं वल्कि सम्पूर्ण जनसमुह या समाज होता है। मनुष्य के ज्ञान में केवल उतनी ही बातें सामिल होती हैं, जो उसने अपने समाज व व्यवहार के माध्यम से प्राप्त किया है। इसके अतिरिक्त वह ज्ञान जो बोल-चाल और पढ़ने-लिखने से या अपने को विस्तारीत करके प्राप्त किया है। इस तरह यह एक अन्तःचक्रिय क्रिया है। ज्ञान अर्जित करने की कोई समय सीमा न होते हुए भी मनुष्य के इच्छा शक्ति से जुड़कर सीमावद्ध हो जाता है।
सच्चाई को आप अपने व्यवहारों से ढूंढ सकते हैं, और उसे व्यवहार करके परख सकते हैं। हमारी इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान को सक्रिय करने पर तर्कसंगत ज्ञान का विकास होता है, फिर उसे हम अपने वाह्य समाज में स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसी तरह यह प्रक्रिया दुहराते हुए ज्ञान की अन्तर्तस्तु को एक उच्चतर स्तर पर ले जा सकते हैं, और यह ज्ञान की एक द्वंद्वात्मक स्थिति है, क्योंकि ज्ञान का स्तर, अनेकों दिशाएं, अनेकों रुप में हो सकती है।
1- अमृत या ज्ञान को देने से पहले उसकी पात्रता देखी जाती है।
2-अच्छी और सुन्दर अभिव्यक्ति ही मनुष्य के जीवन की सुन्दरता है।
3-सुन्दर वाणी ही मनुष्य के व्यक्तित्व की सुन्दरता है।
4-अच्छाई या बुराई की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है।
5- एक माँ अपने सात बच्चों का पेट भर लेती है, लेकिन सात बच्चे मिलकर भी एक माँ का पेट
  नहीं भर पाते हैं।          
6-  अमृत को यदि सूराख दार पात्र में उड़ेल दिया जाए तो भी बह जएगा।

Sunday, January 30, 2011

गांधी की प्रासंगिकता

गांधी की प्रासंगिकता
दिनांक – 30 जनवरी 2011
आदरणीय शशि शेखर जी नमस्कार,
भले ही आज हम गांधी जी को भूल गए हैं लेकिन आज दिनांक – 30 जनवरी 2011 को रविवासरीय हिन्दुस्तान के मंथन पृष्ठ संख्या-18 पर “गांधी की प्रासंगिकता पर इतनी बहस क्यों” नाम से प्रकाशित आपका लेख पढ़ कर हमें गांधी जी की याद दिलाता है। इस लेख के संम्बध में आपसे यह कहना है कि लेख की शुरुआत आपने इस पंक्ति से किया है कि “ चालीस साल पहले। बापू को गए हुए तब दो दशक भी नहीं हुए थे। हमारी पीढ़ी के लोग.................। ” आपका लेख पढ़ कर हमें यह मालूम पड़ता है, कि गांधी जी मृत्यु के साठ बर्ष होने को हैं। उसी समाचार पत्र के प्रथम पृष्ठ पर “ बापू का अंतिम दिन ” के शिर्षक जीवन झांकी की के कुछ चित्रों के उपर तीन पंक्तियों में से शुरुआत की पंक्ति में “ गांधी को गुजरे आज 63 बरस हो गए। ” लिखा है। जो कि स्पष्ट है। इतने बड़े समाचार पत्र में छपा संम्पादीक पृष्ठ मंथन पृष्ठ की विश्वनियता पर कुठारा घात के समान है यह दोनों वक्तव्यों में सही किसको माना जाए। इस प्रकार की संसय पूर्ण जानकारीयों से हमारी आने वाली पीढ़ीयाँ गांधी जी की मृत्यु दिवस और जन्म दिवस के वारे में दिग्भ्रमित अवश्य हो जायेगी।

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भ्रष्ट गण से गणतंत्र तक
दिनांक – 28 जनवरी 2011
विदेशी के स्विस  बैंक में  देश के कुछ भ्रष्ट लोगों का काला धन जमा हैं। यह बात आज से नहीं बल्कि बिसियों सालों से सुनने में चला आ रहा है। जरा आप सोचिए इस दरमियान न जाने कितनी सरकारें आयी और चली गई। जहाँ तक याद पड़ता है, यह मुद्दा वी0 पी0 सिंह सरकार के सत्ता में रहते हुए उठी थी। लेकिन उसे घुमा फिरा कर यह प्रकरण दबा दिया गया। यदि हमारे देश के नेता, मंत्री और नौकरशह इनमें से कोई एक भी  तंत्र सही होता तो बहुत पहले ही दोषियो को सजा मिल जाती और देश का सारा का सारा धन बापस आ जाता और यह मुद्दा कभी का खत्म हो चुका होता। यहाँ एक बात जरुर है कि स्विटजरलैंड का कानून भी समय-समय पर इसके आड़े आता रहा लेकिन कई साल गुजर जाने के बाद ही सन 2009 में स्विट्जरलैंड और भारत के बीच दोहरे काराधान के एक संधि पर हस्ताक्षर जरुर हुए हैं, लेकिन यह संधि स्विस बैंक में जमा कालेधन को वापस देश में लाने की गारंटी नहीं देता है। यह तो एक नाममात्र का प्रयास भर है। आज दिनांक -24 जनवरी 2011 को गूगल समाचार में प्रकाशित यह खबर पढ़ा कि स्विस बैंक में खाता रखने वाले कुछ एक लोगों के नाम पता चल गये हैं, लेकिन कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए भारत सरकार की ओर से श्री प्रणब मुखर्जी                    ने उन लोगों के नाम सार्वजनिक करने से मना कर दिया। ग्लोबल फिनेंशियल इंटीग्रिटी संस्था के अनुसार केवल सन् 2000 से 2008 तक चार करोड़ आठ लाख रुपये (4.8 लाख करोड़ ) देश से बाहर भेजे गये। इससे पहले न जाने और भी कितना कुछ गया होगा उसकी सटीक जानकारी नहीं है। लेकिन सरकार का कहना है कि डबल टैक्सेशन समझौता या एक्सचेंज ऑफ टैक्सेशन इन्फोर्मेशन एग्रीमेंट के रास्ते या इनकम टैक्स विभाग यदि टैक्स चोरों के खिलाफ केस दर्ज करें तो इस मुद्दे को आगे बड़ाया जा सकता है। क्योकि आयकर अधिकारियों के पास कानूनी ताकत है, जिसके तहत वे कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं। इस संम्बंध में देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी केंन्द्र सरकार को झिड़की लगाई और कहा काले धन को केन्द्र टैक्स मे क्यों उलझा रही है। खैर भविष्य में जो भी हो काले धन को देश में वापस लाने के लिए, दृढ़ इच्छा शक्ति से आज तक किसी भी सरकार द्वारा उपयुक्त कार्यवाही या सार्थक प्रायास किया ही नही गया। काले धन रखने वालों के नामो की जानकारी करने से लेकर न जाने और क्या-क्या पापड़ बेलते देखे गए इसके लिए देश के मंत्री से लेकर उच्च पदस्थ अधिकरीयों के स्विट्जरलैंड दौरों पर देश के जनता के गाड़ी कमाई का सफेद धन, अनेकों बार काले धन को देश में वापस लाने पर खर्च किया गया, और यह सफेद धन भी काले धन में तबदील हो गया। काला तो काला कले रंग में चाहे कोई भी रंग मिला दीजिए बह रंग काला हो जायेगा। खैर यह जरुर है कि यदि कोइ भी सरकार दृढ निंश्चय कर ले कि स्विसबैंक में पड़ा काला धन देश में वापस लाना है तो इस काम को सही दिशा देने के लिए अन्य तरीकों पर भी गौर करना चाहिए था। लेकिन किसे पड़ी है कि इतना जिद्दो-जहद करें उससे उन्हे क्या मिलेगा। ऊपर से ऐसे लोगों से पगां, शत्रुता मोल क्यों लिया जाये। यह  मुद्दा हमारे देश मे अभी तक जिंदा है, यह अपने आपमें एक बहुत बड़ी बात है, नहीं तो इतने साल गुजर जाने के बाद लोगों द्वारा इसको भुला दिया जाता। हमारे हिन्दुस्तान के नेता, मंत्री और नौकरशाह जो लोग शायद कभी नहीं सुधर पाएंगे जब तक कि वे खुद नहीं सुधरना चाहेंगे, या जब तक कि उनका कोई बहुत बड़ा अनिष्ट या घटना न घटित हो जाए। भारतीय सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। सहिष्णुता का यह मतलब कतई नहीं होता है कि आपका घर लुट रहा हो और आप तमाशाई बने  देखते रहें, उसे तनिक भर भी रोकने का साहस न जुटा पायें या रोकने की जरुरत महसूस न करें। वह भी जब कोइ विदेशी नही वल्कि अपने ही देश का हो यह तो सरासर दब्बू और कायरता की पहचान है। ऐसे में हमारे देश के लोगों द्वारा चुने जाने वाला सरकार या नेताओं से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं ? अक्सर यह देखा गया है कि दब्बू या कायर लोग जब कोई भी काम करते हैं तो उसे छुपाते हैं किसी को पता न लग जाये इस बात का भरसक प्रयास करते रहते हैं, उन्हे इस बात का हमेशा डर लगा रहता है क्योंकि दुसरों के द्वारा या सामाजिक विरोध-प्रतिक्रिया और उठने वाली बातों को वे सहन नहीं कर पाते हैं। या उसका सामना करना नही चाहते हैं। जिससे उनका सामाजिक दुर्दशा एवं स्तर पर फर्क पड़ता है, घर-परिवार की या निजी बातें तो एक अलग मुद्दा है, यही आदतें उन्हे चोरी करने को प्रेरित करती रहती है, और हमेशा डरे-सहमे से रहते हैं। हमारे समाज में ऐसे लोग की एक बड़ी संख्या हैं, जिनके पास यह आंकलन करने की क्षमता नहीं होती है, कि कौन सी बात कब कहाँ और किससे कहना है या नहीं। अभी-अभी हमने सुभाष जयन्ती और छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया। प्रत्येक छब्बीस जनवरी और पंन्द्रह अगस्त के दिन हमरे देशवासीयों का मष्तक अपने आप गर्व से उच्चाँ हो जाता है, आजादी की शुरुआती दौर से कुछ वर्षों तक सम्पूर्ण राष्ट्र का जन समुदाय जोश एवं एक नयी उर्जा से ओतप्रोत दिखाई पड़ता था। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि हमारे देशवासी  तीन सौ बर्षो तक अंग्रेजों के गुलामियत के जंजीरों से जकड़े रहे हैं अतः हमें एकाएक मिली इस आजादी की इतनी बड़ी खुशी को पा कर हमारा दिमाग एकदम स्वतंन्त्र होकर अपनी सुध–बुध ही खो बैठें और इसका फायदा कोइ अन्य रुप से उठा लें इसलिए हमारी स्वतंत्रा को अछुण रखने के लिए देशवासियों को धीरे-धीरे आजादी का अहसास होने दिया जाये। परन्तु हुआ वही जो शायद नहीं होना चाहिए था। देशवासियों को अचानक आजादी की खबर सुना दी गई और देश की जनता उन्मादी खुशीयों मे तल्लिन हो गई, घर-घर घी के दीपक जलाये जाने लगे। मुट्ठी भर लोगों ने देश के साशन अपने हाथ में लेकर सत्ता पर काबिज होने की तैयारी कर ली। उस समय साशन अपने हाथ में लेने वाले लोगों में से जो उन्ही का विरोध करते उन्हे देश के संविधान लिखने में खुछ एक को अन्य प्रशासनिक कामों में लगा कर जनता से उन्हे दूर रक्खा गया। उस वक्त देशवासी इतनी बड़ी खुशी के आगे किसी भी अन्य नेता या लोगों की बात को तबज्जो नही दे पाये इसी बजह से किसी का ध्यान कौन क्या कर रहा है, इस ओर गया ही नहीं इस तरह बचे खुचे उनके विरोधी भी अलग-थलग पड़ गये। और सही समय देख कर वही लोग सत्ता पर काबिज हो गये। जो बिज हमारे जन-मानष द्वारा आज बोया जायेगा बह कल उन्हे या उनके पूर्वजों को कटना ही पड़ेगा और बही फसल हम वर्तमान में काट रहे हैँ। सत्य बहुत कड़ुवा होता है और कड़वी चीज किसी को भी पसंन्द नहीं है। दवाई कड़वी जरुर होती है, लेकिन दवाई ही फायदा पहुँचाती है।